Tulsi Vivah Katha | तुलसी विवाह कि पौराणिक कथा

कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी और आमावस्या के शुभ दिन तुलसी और  विष्णु जी के शालिग्राम स्वरूप का विवाह प्रतिवर्ष मनाया जाता है। इस लेख में हम आपको Tulsi Vivah Katha | तुलसी विवाह कि पौराणिक कथा का वर्णन करेंगे। हम आशा करते हैं कि आपको यह लेख अवश्य पसंद आएगा यदि आपको यह लेख पसंद आए तो इसे शेयर करना ना भूले।

Tulsi Vivah Katha | तुलसी विवाह कि पौराणिक कथा
Tulsi Vivah Katha

Tulsi Vivah Katha

कालनेमि नामक दैत्य कि कन्या वृंदा का विवाह जलंधर नामक दैत्य के साथ हुआ। जालंधर की उत्पत्ति सागर से हुई जिस समय देव और दैत्य दोनों मिलकर सागर का मंथन कर रहे थे उसे समय इंद्र ने महादेव जी का किसी बात पर अपमान कर दिया था इस अपमान से महादेव जी के शरीर से जो पसीना निकला और समुद्र में गिरा उससे जलंधर नामक दैत्य उत्पन्न हुआ था।

जब जलंधर बड़ा हुआ तो उसने सागर से पैदा होने के कारण जलाशयों का अधिपति घोषित कर लिया और महासागर से उत्पन्न 14 रत्नों को इंद्र से मांगा। देवराज इंद्र ने इन रत्नों को देने से मना कर दिया इस पर जलंधर ने इंद्रलोक पर आक्रमण करने का विचार किया और इसके उपरांत वह एक कठिन तपस्या शुरू कर दिया ब्रह्मा जी ने उससे प्रसन्न होकर उसे यह वरदान दिया कि जब तक तुम्हारी स्त्री तुमको छोड़कर किसी अन्य पुरुष से संबंध ना करेगी तब तक तुम्हारी मृत्यु असंभव है।

जब जालंधर को अपनी सफलता पर पूरा विश्वास हो गया तो उसने इंद्र की ऊपर आक्रमण कर दिए अमरावती को लूट लिया और देवताओं को हरा दिया विष्णु भगवान लड़ाई से भाग निकले और सभी देवता विचलित हो गए। भगवान विष्णु ने शिवजी को यह बात बताई भगवान शिव वृंदा का सतीत्व किसी प्रकार से नष्ट नहीं कर सके। किंतु महादेव इस कार्य में असफल रहे।

तब भगवान विष्णु स्वयं जलंधर का रूप धारण करके वृंदा के सभी पहुंचे परंतु वृंदा ने इस भेद को बिल्कुल भी नहीं समझ पाई वह उनको अपना पति समझने लगी परंतु विष्णु जी वृंदा सतीत्व नष्ट करने में सफल हुए की जलंधर का सर इंद्र ने काट दिया और वह वृंदा के आंगन में आ गिरा । परंतु जब यह भेद वृंदा को पता चला तो वह अत्यंत क्रोधित हुई और उसने भगवान विष्णु को श्राप दिया कि जाओ तुम काले पत्थर की वटिया शालिग्राम हो जाओ।

भगवान विष्णु अत्यंत दुखी थे। वृंदा अपने पति जलंधर के साथ सती हो गई। किंतु भगवान विष्णु  वृंदा के चिता के पास बैठे रहे और चिंता में डूब गए। भगवान विष्णु ने आशीर्वाद दिया कि जहां भी मेरी पूजा होगी तुम्हारे बिना पूजा पूर्ण नहीं होगी ।जहां सती हुई थी उस स्थान पर तुलसी का वृक्ष उग आया।तभी से विष्णु भगवान को मानने वाले प्रतिवर्ष तुलसी रूपी वृंदा का विवाह शालिग्राम से करते हैं।

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Tulsi Vivah Vrat Katha

तुलसी विवाह की एक और मार्मिक कथा द्वापर युग की है। सत्यभामा को अपनी सुंदरता पर अत्यंत अभिमान था। उसको यह विश्वास था कि भगवान कृष्ण को मैं सबसे ज्यादा प्रिया हूं इसलिए एक दिन जब नारद जी द्वारिका पुरी पहुंचे और सत्यभामा के महल में गए तो सत्यभामा ने कहा कि हे मुनि मैं चाहती हूं कि कृष्ण मेरे जन्म जन्मांतर पति हों।

देवर्षि नारद जी ने सत्यभामा के स्वार्थ और अभियान को देखकर उन्होंने उसको सबक सिखाना चाहा। उन्होंने कहा कि यह सिद्धांत तो तुम्हें मालूम है कि जिस वस्तु की तुम जन्मांतर में इच्छा रखती हो वह इस जन्म में तुम्हें किसी सुपात्र ब्राह्मण को दान करनी चाहिए यदि तुम चाहती हो कि तुम्हें इस जन्म के बाद कृष्ण मिले तो तुम्हें कृष्ण को दान कर देना चाहिए । तब सत्यभामा ने कृष्ण को नारद जी को दान कर दिया नारद ने कृष्ण को अपना शिष्य बना लिया और उन्हें अपने साथ लेकर स्वर्ग लोक की ओर चल दिया।

जब यहां बात कृष्ण की अन्य रानियां और महारानियों को पता चली तो सब वहां जाकर नारद जी के पैरों पर गिर पड़ी और प्रार्थना करने लगी की कृष्ण को स्वर्ग ना ले जाओ किंतु नारद जी ने कहा कि सत्यभामा ने कृष्ण को हमें दान कर दिया है इसके बाद और सब रानियां सत्यभामा के पास पहुंची और उसे पूछने लगी। की 16108 स्त्रियों के हृदय के ईश्वर श्री कृष्ण को दान कर देने का अधिकार केवल एक सत्यभामा को कैसे था।

सत्यभामा इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकी नारद जी से पूछने लगी कि आप ही कोई उपाय बताएं । नारद जी ने कहा कि कृष्ण के ही वजन के बराबर हमें सोना और मोती दो तो हम कृष्ण को ना ले जाएं सत्यभामा बड़ी प्रसन्न हुई तराजू लटकाया और सत्यभामा ने अपना सोना और मोती तराजू पर रखना शुरू कर दिया परंतु जिस और कृष्णा बैठे हुए थे उसे ओर का पलड़ा जरा सा भी ना उठा तब और सब रानियां ने एक-एक करके अपना अपना गाना पलड़े में रख दिया किंतु तराजू का पलड़ा जरा सा भी ना उठा नारद जी ने कहा कि रुक्मणी कृष्ण की प्रियतम है उनके पास गहने ज्यादा होंगे उन्हें को बुलाओ उनके पास के गहनों के रखने के शायद कृष्ण के बराबर सोना पूरा हो जाए सत्यभामा को यह बात अच्छी ना लगी किंतु लाचार थी।

अंत में रुक्मणी जी के पास गई रुक्मणी जी उस समय स्वच्छ वस्त्र पहने तुलसी जी की पूजा कर रही थी। सत्यभामा को देखकर खड़ी हो गई और आदर सत्कार के बाद उनसे पूछा कि आपने किस लिए कष्ट किया सत्यभामा ने सब बात बताइए रुक्मणी ने उत्तर दिया कि मैं तो आभूषण पहनती ही नहीं और ना मेरे पास इतने आभूषण है कि मैं उनसे बराबरी कर सकूं किंतु में कृष्ण चंद्र की प्रियतम तुलसी से प्रार्थना करूंगी कि वह कोई ऐसी चीज दिन जो उनके पति श्री कृष्णजी के वजन की बराबरी कर सके।

रुक्मणी जी की या प्रार्थना सुनकर देवी तुलसी के वृक्ष से एक पत्ती गिर पड़ी रुक्मणी जी उसे लेकर सत्यभामा के साथ वहां पर आए जहां नारद जी थे उन्होंने पहले तो नारद जी को प्रणाम किया उसके बाद कृष्ण को और उसके पश्चात तुलसी दल को तराजू के पलड़े पर रखा । तुलसी दल को रखते हैं श्री कृष्ण जी का पलड़ा ऊपर उठ गया। इस समय से रुक्मणी जी कृष्ण की पटरानी कहलाई किंतु उन्होंने अपना यह सौभाग्य तुलसी को दे दिया जो की जलंधर की पत्नी थी और उसी के साथ उस समय से प्रतिवर्ष Tulsi Vivah (तुलसी) विवाह होने की प्रथा चल पड़ी।

तुलसी विवाह कब मनाया जाता है ?

तुलसी विवाह कार्तिक माह की कृष्ण पक्ष की एकादशी और अमावस्या तिथि को तुलसी विवाह मनाया जाता है।

तुलसी पिछले जन्म में कौन थी ?

तुलसी पिछले जन्म में जलंधर की पत्नी थी और उनका नाम वृंदा था

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