विज्ञान भैरव तंत्र धारणा 1: Vigyan Bhairav Tantra

तंत्र शास्त्र का प्रमुख ग्रंथ विज्ञान भैरव तंत्र है क्या आप जानते हैं कि विज्ञान भैरव तंत्र धारणा 1: Vigyan Bhairav Tantra मैं क्या लिखा है इस लेख में हम आपको 112 धारणाओं में से प्रथम धारणा का वर्णन करेंगे।

विज्ञान भैरव तंत्र का परिचय

भैरवी स्वयं भगवान शिव की शक्ति है जो स्वयं शिव से अभिन्न होते हुए भी वह शिव के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ हैं । वह भगवान शिव के वास्तविक स्वरूप को जानने के लिए 8 प्रश्न करती हैं। कि इन सब में आपका वास्तविक स्वरूप क्या है ? हमें यह बताएं।

भगवान शिव ने माता पार्वती के सभी आठ प्रश्नों को नकारते हुए उनसे अपने वास्तविक स्वरूप का वर्णन करते हैं । तो भैरवी उन उपायों को जानना चाहती हैं। जिससे वह शिव अवस्था मैं प्रवेश करके उनसे एक हो जाएं वह शिव से अभिन्न होते हुए भी अपने परा स्वरूप को ना जान पाने के कारण अपने को उनसे भिन्न अनुभव करती हैं ।

वह अपने अपरा प्रकृति से सृष्टि की रचना तो करती हैं । परंतु अपनी ही पर अपरा प्रकृति से अनभिज्ञ हैं। जो शिव से भिन्न नहीं है। भगवान शिव उन्हें इसका बोध कराने के लिए 112 धारणाओं का उपदेश देते हैं। जिससे वह शिव के साथ एकीकृत हो सके हैं ।भगवान भैरव उनसे इस प्रकार कहते हैं।

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विज्ञान भैरव तंत्र धारणा 1: Vigyan Bhairav Tantra

सृष्टि का परम तत्व चैतन्य है। वेदांत उसे ईश्वर कहता है सांख्य दर्शन उसे पुरुष कहता है । तथा तंत्र शास्त्र उसे शिव कहता है । यह सृष्टि उसी चैतन्य तत्वों की शक्ति है जिसे वेदांत माया शक्ति कहता है। सांख्य इसीको प्रकृति कहता है। तथा तंत्र शास्त्र इसे भैरवी कहता है। भगवान शिव को भैरव कहा गया है।

यह भैरवी शक्ति अपनी परावस्था में भैरव से अभिन्न रहती हैं। परंतु अपनी अपरावस्था में यही सृष्टि की रचना करती है। शरीरों में यही शक्ति प्राणियों के प्राण के रूप में सभी जीवधारियों में विद्यमान रहकर उन्हें जीवन प्रदान करती है । प्राणों की इसी शक्ति से सभी जीवधारी प्राणी जीवन प्राप्त करते हैं। तथा प्राणों के निकल जाने के पश्चात वे मृत घोषित कर दिए जाते हैं ।

अतः जीवन का आधार यही प्राण शक्ति है। यह प्राण शक्ति चेतन तत्व शिव की ही शक्ति है । परंतु चेतन तत्व केवल ज्ञान स्वरूप है। वह क्रिया नहीं करता सभी क्रियाएं उसकी शक्ति से ही होती हैं। शरीर में यही प्राण शक्ति श्वास प्रश्वास के रूप में कार्य करती हैं। योग शास्त्रों में इसी को रेचक पूरक व कुंभक कहा जाता है।

प्रथम श्लोक में कहा गया है कि श्वास प्रश्वास कि यह क्रिया इस परा देवी का ही इस बंधन है । यह क्रिया हृदय से आरंभ होकर ऊपर द्वादशांत तक अर्थात नासिका से बाहर निकाल कर बारह अंगुल दूर तक जाती है। तो इसे प्राण कहा जाता है। तथा द्वादशांत से भीतर हृदय तक आने वाले श्वास को जीव नामक अपान कहा जाता है।

यह परादेवी निरंतर इसका स्पंदन करती रहती है। यह पैरादेवी:  विसर्ग स्वभाव वाली है। यही आन्तर व बाह्य भावों की सृष्टि करती हैं। शरीर में अथवा सृष्टि में जो भी स्पंदन है, हलचल है वह सभी इसी शक्ति के कारण है जहां कोई भी स्पंदन नहीं है कोई भी हलचल नहीं है । ऐसी शांत अवस्था ही चैतन्य स्वरूप शिव का स्थान है।

जब प्राण तत्व बाहर निकलता है और अपान का आरंभ नहीं होता है तो इन दोनों के बीच में थोड़ा सा अवकाश रहता है। यही शिव का स्थान है।जहां कोई गतिविधि नही होती है। इस पर ध्यान को केंद्रित करने पर यह अवकाश लंबा हो जाता है।

और इसी में उस चैतन्य स्वरूप शिव की अनुभूति होती है।इस प्रकार जब हृदय में अपान वायु का अंत होकर प्राण वायु का उदय होने के मध्य जो अवकास है।उसका ध्यान करने से योगी की भैरव स्वरूप शिव की अभिव्यक्ति हो जाती है।

प्राण वृत्ति का अंदर आना व बाहर जाना इसका स्वाभाविक कार्य है।जो इस परा शक्ति का ही स्पंदन है। द्वादशांत तथा हृदय में ध्यान करने से सभी तरह की उपाधियों का विस्मरण हो जाता है तथा मैं ही भैरव हूं। इस प्रकार की अनुभूति हो जाती है।यही शून्य स्थान है।

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