विज्ञान भैरव तंत्र में सहज योग के प्रतिपादक इस ग्रंथ में 112 धारणाओं में साधक को चित् शक्ति में होकर परम तत्व को प्राप्त करने का मार्ग बताया गया है।क्या आप जानते हैं कि Vigyan bhairav tantra vidhi : विज्ञान भैरव तंत्र(36-51) में क्या है ? इस लेख में हम आपको 36-51 के बीच तंत्र शिक्षा के बारे मे बताएंगे।
Vigyan bhairav tantra vidhi : विज्ञान भैरव तंत्र(36-51)
36- संसार बाधा नहीं है । हमारा यह मन ही बाधा है। मनुष्य ब्रह्म ही है। परंतु इस मन के कारण उसे संसार ही दिखाई दे रहा है ब्रह्म नहीं दिखाई देता । मन के विलीन होने पर वह ब्रह्म ही हो जाता है।
37- विज्ञान भैरव तंत्र की 112 विद्या मन की वृत्तियों को नष्ट करने की ही विधियां हैं। जिससे वह ब्रह्म स्वरूप हो जाता है।
38- प्राणी के दो विचारों के मध्य में जो अवकाश है वह अवकाश ही उपयोगी होता है । वह स्थिर अवस्था है जिस पर ध्यान केंद्रित करने से उस चेतन तत्व की अनुभूति हो जाती है।
39- जिस प्रकार पानी में हलचल होती रहती है तब तक आप उस पानी में चंद्रमा का प्रतिबिंब नहीं देख सकते । ठीक इसी प्रकार मन की चंचलता से ही आत्मा का प्रतिबिंब नहीं दिखाई पड़ता।
40- जब हमारा चित् शून्य अवस्था में पहुंच जाता है। तभी यह ज्ञात होता है की क्रिया का कारण भी वही है तथा जो ज्ञान है उसका ज्ञाता भी वही है। इस प्रकार का ज्ञान हो जाना ही अपने आप में एक परम उपलब्धि है।
Vigyan Bhairav Ke Anusar Man Kaisa Hai
41- मन की चंचलता ही ऐसी होती है कि वह अपनी इच्छित वस्तु की ओर आकर्षित होती है। उस समय दूसरी वस्तु की और उसका ध्यान नहीं जाता जब उसे कोई इच्छित वस्तु नहीं मिलती तभी वह व्यर्थ और अनुपयोगी को ही उपयोगी समझकर उसकी ओर आकर्षित होता है। अपने आराध्य के ध्यान में लगने पर वह सांसारिक पदार्थों की ओर आकर्षित होता ही नहीं है ।
42- जब मन में अपने आराध्य किस प्रकार स्थिर हो जाए जैसे पवन रहित स्थान में दीपक की लव स्थिर रहती है । तो इस अवस्था में योगी को परम आनंद की अवस्था प्राप्त होती है। इसी को ब्रह्म स्वरूप होना कहते हैं ।
43- चित् की वृत्ति ही ऐसी है कि संसार की सभी वस्तुओं में भेद की प्रतीत होती है। मन अभेद को नहीं जान सकता । आत्मा के तल पर ही अभेद का ज्ञान होता है।
44- मनुष्य जो बाहरी विषयों में आनंद की खोज करता है। परंतु वह वास्तविक आनंद नहीं है। वास्तविक आनंद तो स्वयं के भीतर ही है जो स्वयं की आत्मा है ।
45- मनुष्य को जो आनंद की प्राप्ति होती है । वह उस चेतन आत्मा के कारण ही होती है क्योंकि आत्मा स्वयं आनंद स्वरूप है।
46- शरीर में भेद होने से आत्मा चेतना में भेद नहीं हो जाता। वह सब में समान रूप से व्याप्त है ऐसा ज्ञान हो जाना है परम सिद्धि की प्राप्ति हो जाती है।
47- कुछ लोग ईश्वर को भिन्न-भिन्न मानते हैं। यदि ईश्वर भिन्न-भिन्न है तो आत्मा भी भिन्न-भिन्न है ऐसे सोचने वाले अज्ञानी हैं। इस प्रकार की दृष्टि रखने वाले व्यक्ति संसार में द्वेष और अराजकता फैलाते हैं। सनातन धर्म के तंत्र व वेदांत दर्शन ही क्षमता की बात करता है। अन्य कोई दर्शन इसकी बात नहीं करता है।
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Vigyan Bhairav Me Anand Kha Hai
48- आनंद स्वयं के भीतर है को स्त्री सहवास से प्रकट होता है।स्त्री उसमे कारण नही है। वह स्त्री के अभाव में भी प्रकट हो सकता है इसे ब्रह्मानंद सहोदर माना जाता है।
49- भोजन ग्रहण करने से जो सुख की प्राप्त होती है वह भी स्वात्म सुख ही है।
50- मनुष्य की पांचो ज्ञानेंद्रिय द्वारा जो उत्तम विषय ग्रहण किए जाते हैं । तथा उनसे जो आनंद की अनुभूति होती है। वह आनंद ही स्वचेतना का आनंद है। यह आनंद ही ब्रह्म रुप है । इसमें स्थिर हो जाना ही ब्रह्म हो जाना है । वह आनंद ही निज का स्वरूप है।
51- आनंद प्राप्ति करना ही मनुष्य का स्वभाव है। उसे प्राप्त कर उसी में तन्मय हो जाना यही उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है। जिन्हें आनंद नहीं मिलता है वे ही दुखों के रोने रोते रहते हैं । आनंद में स्थिर हो जाना ही ब्रह्म स्वरूप हो जाना है।