विज्ञान भैरव तंत्र शास्त्र में भगवान भैरव भैरवी को 112 विधाओं का वर्णन करते हैं उनमें से एक धारणा यह भी है। क्या आप जानते हैं कि विज्ञान भैरव तंत्र धारणा 2 : Vigyan Bhairav Tantra Vidhi 2 क्या है ? विज्ञान भैरव तंत्र धारणा 2 निम्नलिखित है।
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विज्ञान भैरव तंत्र धारणा 2 : Vigyan Bhairav Tantra Vidhi 2
विज्ञान भैरव तंत्र की 112 धारणाओं में दूसरी धारणा के श्लोक में भगवान भैरव इस मध्य स्थित का वर्णन करते हुए भैरवी से कहते हैं कि यह भैरवी इस प्राण और अपान का आधारभूत स्थान आन्तर आकाश हृदय तथा बाह्य आकाश द्वादशांत इन दोनों स्थानों से यह पवन पुनः लौटता है।
इसके पुनः लौटने से पूर्व एक क्षण के लिए वह रुकता है । इस स्थिति को द्वादशांत कहा जाता है। इस समय उसकी वृत्ति अंतर्मुख हो जाती है। उसे समय ऐसा प्रतीत होता है कि प्राण और अपान कहीं विलुप्त हो गए हैं। योगी की इस स्थिति को योग शास्त्रों में कुंभक कहा गया है तथा तंत्र शास्त्र में इसे मध्य दशा कहते हैं।
विज्ञान भैरव तंत्र धारणा 1 पढें –विज्ञान भैरव तंत्र धारणा एक पढें
यह मध्य दशा एक क्षण के लिए ही होती है परंतु अभ्यास द्वारा जब इस स्थिति का विकास किया जाता है तो भगवान भैरव का स्वरूप प्रकाशित हो जाता है। जो पराशक्ति भैरवी से अभिन्न रूप से विद्यमान रहते हैं। धर्म और धर्मी जिस प्रकार एक दूसरे से अभिन्न है।
ठीक उसी प्रकार भगवान शिव और उनकी शक्ति अथवा भैरव और भैरवी एक दूसरे से अभिन्न है। इनको अलग नहीं किया जा सकता। वह परमार्थ रूप में एक ही है किंतु इनमें भेद ज्ञात होता है। कि जब प्राण और अपान दोनों का ना चलना हो तभी इस मध्य दशा का अनुभव किया जा सकता है।
योग शास्त्र के अनुसार हृदय स्थित कमल कोष से प्राण का उदय होकर नासिका मार्ग से निकलकर 12 अंगुल चलकर अंत में आकाश में विलुप्त हो जाता है । प्राण की इस बाह्य गति को रेचक कहा जाता है। तथा इस वह आकाश से अपन का उदय होता है। तथा नासिक मार्ग से चलकर यह हृदय स्थित कमल कोष में विलीन हो जाता है।
अपान की इस स्वाभाविक अंतर गति को पूरक कहा जाता है। जब द्वादशांत में तथा अपान वायु हृदय में क्षण भर के लिए रुक जाती है। उसे योग शास्त्रों में कुंभक कहा जाता है। यह कुंभक अवस्था दो तरह की होती है।
वह कुंभक तथा आन्तर को जब यह श्वास चलते-चलते मध्य में ही किसी कारण से रुक जाती है। तो उसे मध्य कुंभक कहते हैं। इन सभी रेचक कुंभक तथा पूरक अवस्थाओं का निरंतर ध्यान पूर्वक निरीक्षण करते रहने से योगी जीवन मृत्यु से मुक्त हो जाता है।
पातंजल योग दर्शन में प्राणायाम कि विधियों बताई गई हैं किंतु उसमे कहा गया है। कि आसन की सिद्धि होने पर श्वास प्रश्वास की गति का रूक जाना ही प्राणायाम है। यह अपने आप होता जाता है। हठयोग में विभिन्न प्रकार के प्राणायामों का वर्णन है। योग वाशिष्ठ में भी प्राणों के निरोध के उपाय बताए गए है।
वर्तमान समय में कुछ योग गुरु केवल शरीर को तोड़ मरोड़कर उछल कूद को ही व्यायाम बता रहे है। जबकि पतंजलि के योग का ये अर्थ इस प्रकार बिलकुल नही है। पतंजलि योग साधना का प्रमुख केन्द्र श्वास प्रश्वास की क्रिया पर आधारित है। व्यायाम में प्राणों अर्थात श्वास( वायु ) को नियंत्रित और एकाग्रचित करना है।
इस प्रकार प्राणों का निरोध होने पर ही ईशवरानुभूति होती हैं । किंतु तंत्र की विधि सहज योग कि विधि है।जिससे प्राणों की गति को रोकना नही है। बल्कि जो स्वाभाविक रूप से चल रही है।उसे देखते रहना मात्र हैं। इसी से प्राणों का स्पंदन रुक जाता है व साधक ध्यान में प्रवेश कर जाता है। इस ध्यान कि स्थिति में ही साधक को शिवानुभूति हो जाती है।